अग्नि
दीप्त अभीप्से मुझको तू ले जा सत्पथ पर यज्ञ कुंड हो मेरा हृदय अग्नि हे भास्वर! प्राण बुद्धि मन की प्रदीप्त घृत आहुति पाकर मेरी ईप्सा को पहुँचा दे परम व्योम पर! तू भुवनों में व्याप्त निखिल देवों की ज्ञाता यज्ञ अंश के भागी वे तू उनकी त्राता! निशि दिन बुद्धि कर्म की हवि दे भूरि कर नमन आते हम तेरे समीप हे अग्नि प्रतिक्षण! निज यज्ञों में मरणशील हम करते पूजन उस अमर्त्य का जो सब के अंतर में गोपन! यदि तू मैं, मैं तू बन जाऊँ शिखे ज्योतिमय तो तेरे आशीष सत्य हों, जीवन सुखमय! मन से ज्ञान रश्मियों से कर तुझे प्रज्वलित हम सद्बुद्धि तेज, सत्कर्मों को पाते नित। जिन जिन देवों का करते हम अहर्निशि यजन वे शाश्वत विस्तृत हवि तुझको अग्नि समर्पण! ज्योति प्रचेता निहित अकवियों में तू कवि बन, मर्त्यों में तू अमृत, वरुण के हरती बंधन! कैसे तुझे प्रसन्न करें हम, वरें दीप्त मन, ज्ञात नहीं पथ, प्राप्त नहीं तप बल या साधन! कौन मनीषा यज्ञ भेंट दें कौन हवि स्तवन जिससे अग्नि, शिखा तेरी कर सके मन वहन!

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