बदला ले लो, सुख की घड़ियों! सौ-सौ तीखे काँटे आये फिर-फिर चुभने तन में मेरे! था ज्ञात मुझे यह होना है क्षण भंगुर स्वप्निल फुलझड़ियों!...
चुपके से चाँद निकलता है। तरु-माला होती स्वच्छ प्रथम, फिर आभा बढ़ती है थम-थम, फिर सोने का चंदा नीचे से उठ ऊपर को चलता है।...
कोई बिरला विष खाता है! मधु पीने वाले बहुतेरे, और सुधा के भक्त घनेरे, गज भर की छातीवाला ही विष को अपनाता है!...
प्रथम चरण है नए स्वर्ग का, नए स्वर्ग का प्रथम चरण है, नए स्वर्ग का नया चरण है, नया क़दम है!...
जिसके पीछे पागल होकर मैं दौडा अपने जीवन-भर, जब मृगजल में परिवर्तित हो मुझ पर मेरा अरमान हंसा! तब रोक न पाया मैं आंसू!...
प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ। अरमानों की एक निशा में होती हैं कै घड़ियाँ, आग दबा रक्खी है मैंने...
बोलकर जो जय उठाते हाथ, उनकी जाति है नत-शीश, उनका देश है नत-माथ, अचरज की नहीं क्या बात?...
क्षण भर को क्यों प्यार किया था? अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर, पलक संपुटों में मदिरा भर तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था?...
अब वे मेरे गान कहाँ हैं! टूट गई मरकत की प्याली, लुप्त हुई मदिरा की लाली, मेरा व्याकुल मन बहलानेवाले अब सामान कहाँ हैं!...
साथी, कर न आज दुराव! खींच ऊपर को भ्रुओं को रोक मत अब आँसुओं को, सह सकेगी भार कितना यह नयन की नाव!...
रक्त मानव का हुआ इफ़रात। अब समा सकता न तन में, क्रोध बन उतरा नयन में, दूसरों के और अपने, लो रंगा पट-गात।...
कैसे भेंट तुम्हारी ले लूँ? क्या तुम लाई हो चितवन में, क्या तुम लाई हो चुंबन में, अपने कर में क्या तुम लाई,...
कहाँ सबल तुम, कहाँ निबल मैं, प्यारे, मैं दोनों का ज्ञाता। तप, संयम, साधन करने का मुझको कम अभ्यास नहीं है पर इनकी सर्वत्र सफलता...
जो बीत गई सो बात गई जीवन में एक सितारा था माना वह बेहद प्यारा था वह डूब गया तो डूब गया...
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं! अगणित उन्मादों के क्षण हैं, अगणित अवसादों के क्षण हैं, रजनी की सूनी घड़ियों को किन-किन से आबाद करूँ मैं!...
आधे से ज़्यादा जीवन जी चुकने पर मैं सोच रहा हूँ- क्यों जीता हूँ? लेकिन एक सवाल अहम...
यह काम कठिन तेरा ही था, यह काम कठिन तेरा ही है। तूने मदिरा की धारा पर स्वप्नों की नाव चलाई है, तूने मस्ती की लहरों पर...
फिर भी जीवन की अभिलाषा! दुर्दिन की दुर्भाग्य निशा में, लीन हुए अज्ञात दिशा में साथी जो समझा करते थे मेरे पागल मन की भाषा!...
अरे है वह अंतस्तल कहाँ? अपने जीवन का शुभ-सुन्दर बाँटा करता हूँ मैं घर-घर, एक जगह ऐसी भी होती,...
मैं हूँ उनके साथ खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़। कभी नहीं जो तज सकते हैं अपना न्यायोचित अधिकार,...
क्या मैं जीवन से भागा था? स्वर्ण श्रृंखला प्रेम-पाश की मेरी अभिलाषा न पा सकी, क्या उससे लिपटा रहता जो कच्चे रेशम का तागा था!...
मेरे मन का उन्माद गगन बदराया। युगल पँखुरियों से धरती पर ढलक परा जो पानी, मेरे अवसादों की उसमें...
जग ने तुझे निराश किया! डूब-डूबकर मन के अंदर लाया तू निज भावों का स्वर, कभी न उनकी सच्चाई पर जगती ने विश्वास किया!...
साथी, कवि नयनों का पानी- चढ जाए मंदिर प्रतिमा पर, यी दे मस्जिद की गागर भर, या धोए वह रक्त सना है जिससे जग का आहत प्राणी?...
आओ, बैठें तरु के नीचे! कहने को गाथा जीवन की, जीवन के उत्थान पतन की अपना मुँह खोलें, जब सारा जग है अपनी आँखें मींचे!...
यही प्रसिद्ध लौह का पुरुष प्रबल यही प्रसिद्ध शक्ति की शिला अटल, हिला इसे सका कभी न शत्रु दल, पटेल पर, स्वदेश को गुमान है।...
धार थी तुममें कि उसको आँकते ही हो गया बलिहार था मैं। शौक़ खतरों-जोखिमों से खेल करने का नहीं मेरा नया था, किंतु चुम्बक से खिंचा जैसा तुम्हारे...
जैसा गाना था, गा न सका! गाना था वह गायन अनुपम, क्रंदन दुनिया का जाता थम, अपने विक्षुब्ध हृदय को भी मैं अब तक शांत बना न सका!...
देखो, टूट रहा है तारा! नभ के सीमाहीन पटल पर एक चमकती रेखा चलकर लुप्त शून्य में होती-बुझता एक निशा का दीप दुलारा!...
हर रात तुम्हारे पास चला मैं आता हूँ। जब घन अँधियाला तारों से ढल धरती पर आ जाता है, जब दर-परदा-दीवारों पर भी नींद नशा...
दुनिया अब क्या मुझे छलेगी! बदली जीवन की प्रत्याशा, बदली सुख-दुख की परिभाषा, जग के प्रलोभनों की मुझसे अब क्या दाल गलेगी!...
जुए के नीचे गर्दन ड़ाल! देख सामने बोझी गाड़ी, देख सामने पंथ पहाड़ी, चाह रहा है दूर भागना, होता है बेहाल?...
रक्तरंजित साँझ के आकाश का आधार लेकर एक पत्रविहीन तरु कंकाल-सा आगे खड़ा है....
पृथ्वी रक्तस्नान करेगी! ईसा बड़े हृदय वाले थे, किंतु बड़े भोले-भाले थे, चार बूँद इनके लोहू की इसका ताप हरेगी?...
मेरे उर की पीर पुरातन तुम न हरोगे, कौन हरेगा। किसका भार लिए मन भारी जगती में यह बात अजानी, कौन अभाव किए मन सूना...
बजा तू वीणा और प्रकार। कल तक तेरा स्वर एकाकी, मौन पड़ी थी दुनिया बाकी, तेरे अंतर की प्रतिध्वनि थी तारों की झनकार।...
क्या कंकड़-पत्थर चुन लाऊँ? यौवन के उजड़े प्रदेश के, इस उर के ध्वंसावशेष के, भग्न शिला-खंडों से क्या मैं फिर आशा की भीत उठाऊँ?...
व्यर्थ गया क्या जीवन मेरा? प्यासी आँखें, भूखी बाँहें, अंग-अंग की अगणित चाहें; और काल के गाल समाता जाता है प्रति क्षण तन मेरा!...