बुद्ध के साथ एक शाम
रक्तरंजित साँझ के आकाश का आधार लेकर एक पत्रविहीन तरु कंकाल-सा आगे खड़ा है. टुनगुनी पर नीड़ शायद चील का, खासा बड़ा है. एक मोटी डाल पर है एक भारी चील बैठी एक छोटी चिड़ी पंजों से दबाए जो कि रह-रह पंख घबराहट भरी असमर्थता से फड़फड़ाती, छुट न पाती, चील कटिया सी नुकीली चोंच से है बार-बार प्रहार करती, नोचकर पर डाल से नीचे गिराती, माँस खाती, मोड़ गर्दन इस तरफ़ को उस तरफ़ को देख लेती; चार कायर काग चारों ओर मंडलाते हुए हैं शोर करते. दूर पर कुछ मैं खड़ा हूँ. किंतु लगता डाल पर मैं ही पड़ा हूँ; एक भीषण गरुड़ पक्षी मांस मेरे वक्ष का चुन-चुन निगलता जा रहा है; और कोई कुछ नहीं कर पा रहा है. अर्थ इसका,मर्म इसका जब न कुछ भी समझ पड़ता बुद्ध को ला खड़ा करता-- दृश्य ऐसा देखते होते अगर वे सोचते क्या, कल्पना करते ? न करते ? चील-चिडियाँ के लिए, मेरे लिए भी किस तरह के भाव उनके हिये उठते ? शुद्ध, सुस्थिरप्रग्य,बुद्ध प्रबुद्ध ने दिन-भर विभुक्षित चील को सम्वेदना दी, तृप्ति पर संतोष, उनके नेत्र से झलका, उसी के साथ चिड़िया के लिए संवेदना के अश्रु ढलके, आ खड़े मेरे बगल में हुए चल के, प्राण-तन-मन हुए हल्के, हाथ कंधे पे धरा, ले गए तरु के तले, जैसे बे चले ही पाँव मेरे चले ? नीचे तर्जनी की, बहुत से छोटे-बड़े,रंगीन, कोमल-करूण-बिखरे-से परों से, धरनि की धड़कन रुकी-सी ह्रत्पटी पर, प्रकृति की अनपढ़ी लिपि में, एक कविता सी लिखी थी !

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