राष्‍ट्र-पिता के समक्ष
हे महात्मन, हे महारथ, हे महा सम्राट ! हो अपराध मेरा क्षम्य, मैं तेरे महाप्रस्थान की कर याद, या प्रति दिवस तेरा मर्मभेदी,दिल कुरेदी,पीर-टिकट अभाव अनुभव कर नहीं तेरे समक्ष खड़ा हुआ हूँ. धार कर तन -- राम को क्या, कृष्ण को क्या-- मृत्तिका ऋण सबही को एक दिन होता चुकाना; मृत्यु का कारण,बहाना . और मानव धर्म है अनिवार्य को सहना-सहाना. औ'न मैं इसलिए आया हूँ कि तेरे त्याग,तप,निःस्वार्थ सेवा, सल्तनत को पलटनेवाले पराक्रम, दंभ-दर्प विचूर्णकारी शूरता औ' शहनशाही दिल,तबियत,ठाठ के पश्चात अब युग भुक्खरों,बौनों,नकलची बानरों का आ गया है; शत्रु चारों ओर से ललकारते हैं, बीच,अपने भाग-टुकड़ों को मुसलसल उछल-कूद मची हुई है; त्याग-तप कि हुंडियां भुनकर समाप्तप्राय भ्रष्टाचार,हथकंडे,खुशामद,बंदरभपकी की कमाई खा रही है. अस्त जब मार्तण्ड होता, अंधकार पसरता है पाँव अपने, टिमटिमाते कुटिल,खल-खद्योत दल, आत्मप्रचारक गाल-गाल श्रृगाल कहते घूमते है यह हुआ,वह हुआ, ऐसा हुआ,वैसा हुआ,कैसा हुआ ! शत-शत,इसी ढब की,कालिमा की छद्म छायाएँ चतुर्दिक विचरती हैं.

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