कलश और नींव का पत्‍थर
अभी कल ही पंचमहले पर कलश था, और चौमहले, तिमहले, दुमहले से खिसकता अब हो गया हूँ नींव का पत्थर! काल ने धोखा दिया, या फिर दिशा ने, या कि दोनों में विपर्यय; एक ने ऊपर चढ़ाया, दूसरे ने खींच नीचे को गिराया, अवस्था तो बढ़ी लेकिन व्यवस्थित हूँ कहाँ घटकर! आज के साथी सभी मेरे कलश थे, आज के सब कलश कल साथी बनेंगे. हम इमारत, जो कि ऊपर से उठा करती बराबर और नीचे को धँसी जाती निरंतर.

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