हर रात तुम्हारे पास चला मैं आता हूँ।
जब घन अँधियाला तारों से ढल धरती पर
आ जाता है,
जब दर-परदा-दीवारों पर भी नींद नशा
छा जाता है,
तब यंत्र-सदृश अपने बिस्तर से हो बाहर
चुपके-चुपके
हर रात तुम्हारे पास चला मैं आता हूँ।
समतल भू-तल, बत्ती की पाँतों के पहरे
मैं सुप्त नगर,
अंबर को दर्पण दिखलाते सरवर, सागर,
मधुबन, बंजर,
हिम-तरु-मंडित, नंगी पर्वत-माला, मरुथल
जंगल, दलदल--
सबकी दुर्गमता के ऊपर मुस्काता हूँ।
हर रात तुम्हारे पास चला मैं आता हूँ।