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एक क्षण भर और रहने दो मुझे अभिभूत फिर जहाँ मैने संजो कर और भी सब रखी हैं ज्योति शिखायें ...

जब मैं वाताहत झरते फूल सरीखी उस के पैरों में जा गिरी, तब उसने निर्मम स्वर में पूछा- जिस देवता के वरदान का भार सहने की क्षमता तुझ में नहीं थी, उसे तूने अपनी आराधना द्वारा क्यों प्रसन्न किया?...

सूने गलियारों की उदासी । गोखों में पीली मन्द उजास स्वयं मूर्च्छा-सी । थकी हारी साँसे, बासी ।...

टेर वंशी की यमुना के पार अपने-आप झुक आयी कदम की डार।...

तुम्हें अपनी धनी हवेली में भूतों का डर सता रहा है। मुझे अपने झोंपड़े में यह डर खा रहा है...

जब-जब पीड़ा मन में उमँगी तुमने मेरा स्वर छीन लिया मेरी नि:शब्द विवशता में झरता आँसू-कन बीन लिया। प्रतिभा दी थी जीवन-प्रसून से सौरभ-संचय करने की- क्यों सार निवेदन का मेरे कहने से पहले छीन लिया?...

जो जिये वे ध्वजा फहराते घर लौटे जो मरे वे खेत रहे। जो झूमते नगर लौटे, डूबे जय-रस में। (खँडहरों के प्रेत और कौन हैं-...

नशे में सपना देखता मैं सपने में देखता हूँ नशे में सपना देखनेवाले को सपने में देखता हुआ...

बरसों की मेरी नींद रही। बह गया समय की धारा में जो, कौन मूर्ख उस को वापस माँगे? मैं आज जाग कर खोज रहा हूँ...

चौंक उठी मैं, मुझे न जाने क्यों सहसा आभास हुआ- तेरे स्नेहसिक्त कर ने मेरी अलकों का छोर छुआ! कितना दु:सह उल्लास हुआ! टूट गया वह जागृत-स्वप्न कि जिस में मन उलझाये थी-...

घटा, झुक आयी अचानक तुम यहाँ तक- इन भवों को भी लोगी चूम? न जाने!...

यह इधर बहा मेरे भाई का रक्त वह उधर रहा उतना ही लाल तुम्हारी एक बहिन का रक्त! बह गया, मिलीं दोनों धारा...

ओ रिपु! मेरे बन्दी-गृह की तू खिड़की मत खोल! बाहर-स्वतन्त्रता का स्पन्दन! मुझे असह उस का आवाहन! मुझ कँगले को मत दिखला वह दु:सह स्वप्न अमोल! कह ले जो कुछ कहना चाहे, ले जा, यदि कुछ अभी बचा है!...

ओ एक ही कली की मेरे साथ प्रारब्ध-सी लिपटी हुई दूसरी, चम्पई पंखुड़ी! हमारे खिलते-न-खिलते सुगन्ध तो...

मैं तुम्हें सम्पूर्णत: जान गया हूँ। तुम क्षितिज की सन्धि-रेखा के आकाश हो, और मैं वहीं की पृथ्वी। हम दोनों अभिन्न हैं, तथापि हमारे स्थूल आकार अलग-अलग हैं; हम दोनों ही सात्त्विक हैं, पर हमारा अस्तित्व नहीं है; हम दोनों के प्रस्तार सीमित हैं, फिर भी हमारा मिलन अनन्त और अखंड है। मैं तुम्हें सम्पूर्णत: जान गया हूँ।...

तू तो सपने में झलक दिखा कर चला गया : मैं...

मेरे हृदय-रक्त की लाली इस के तन में छायी है, किन्तु मुझे तज दीप-शिखा के पर से प्रीति लगायी है। इस पर मरते देख पतंगे नहीं चैन मैं पाती हूँ- अपना भी परकीय हुआ यह देख जली मैं जाती हूँ।...

अम्बार है जूठी पत्तलों का : निश्चय ही पाहुने आये थे। बिखरी पड़ी हैं डालियाँ-पत्तियाँ : किसी ने तोरण सजाये थे। गली में मचा है कोहराम भारी : मुफ़्त का पैसा किसी ने पाया था। उठती है आवाज तीखे क्रन्दन की : निश्चय ही कोई बहू लाया था।...

ख़ून के धब्बों से अँतराते हुए पैरों के सम, निधड़क छापे। भीड़ की आँखों में बरसती घृणा के...

पहाड़ी की ढाल पर लाल फूला है बुरूँस, ललकारता; हर पगडंडी के किनारे कली खिली है अनार की; और यहाँ...

फिर गुज़रा वह घिसटे पैरों से गली की गच को सुख-माँजता मलते हाथ रुकते...

प्रियतम! जानते हो, सुधाकर के अस्त होते ही कुमुदिनी क्यों नत-मस्तक हो कर सो जाती है? इसलिए नहीं कि वह प्रणय से थकी होती है। इसलिए नहीं कि वह वियोग नहीं सह सकती। इसलिए नहीं कि वह सूर्य के प्रखर ताप से कुंठित हो जाती है।...

झरते-झरते पिछले वसन्त के फूल डालियों पर उमगाते गये फलों के नाना-विध आश्वासन :...

उड़ चल हारिल लिये हाथ में यही अकेला ओछा तिनका उषा जाग उठी प्राची में कैसी बाट, भरोसा किन का! ...

किन्तु विजयी! यदि तुम बिना माँगे ही, स्वेच्छा से अपने अन्त:करण के छलकते हुए सम्पूर्णत्व से विवश हो कर, अपने विजय-पथ पर रुक कर कुछ दे दोगे तो... तो तुम देखोगे, तुम्हारा विजय-पथ समाप्त हो गया है, तुम्हारी विजय-यात्रा पूरी हो गयी है, तुम अपने विश्राम-स्थल पर पहुँच गये हो। मेरे प्रेम में!...

मैं बहुत ऊपर उठा था, पर गिरा। नीचे अन्धकार है-बहुत गहरा पर बन्धु! बढ़ चुके तो बढ़ जाओ, रुको मत : मेरे पास-या लोक में ही-कोई अधिक नहीं ठहरा!...

आज मैं ने पर्वत को नयी आँखों से देखा। आज मैं ने नदी को नयी आँखों से देखा। आज मैं ने पेड़ को नयी आँखों से देखा। आज मैं ने पर्वत पेड़ नदी निर्झर चिड़िया को...

मन्दिर में मैं ने एक बिलौटा देखा : चपल थीं उस की आँखें और विस्मय-भरी उस की चितवन;...

मैं ने पूछा, यह क्या बना रही हो? उसने आँखों से कहा धुआँ पोंछते हुए कहा :...

रक्तबीज का रक्त जहाँ जहाँ गिरता था एक और रक्तबीज उठ खड़ा होता था। राक्षस था रक्तबीज...

व्यथा सब की, निविड़तम एकांत मेरा । कलुष सब का...

रोते-रोते कंठ-रोध है जब हो जाता, उस विषन्न नीरव क्षण में ही कहती गिरा तुम्हारी, स्नेही शान्त भाव से-...

शिशिर ने पहन लिया वसन्त का दुकूल, गन्धवह उड़ रहा पराग-धूल झूल, काँटों का किरीट धारे बने देवदूत पीत-वसन दमक उठे तिरस्कृत बबूल।...

अच्छा लगता है यों तुम्हें पीछे छोड़ जाना बँधी हुई भावना निबाहते संकल्प की स्वतन्त्रता का बहाना।...

जब आवे दिन तब देह बुझे या टूटे इन आँखों को हँसती रहने देना! ...

खोली को तो, चलो सोने से मढ़ लो, पर सुअर तो सुअर रहेगा- उस का क्या करोगे?...

अब देखिए न मेरी कारगुज़ारी कि मैं मँगनी के घोड़े पर सवारी कर ठाकुर साहब के लिए उन की रियाया से लगान...

आह! यह वन-तुलसी की गन्ध! आह! एक उमस मन को भीतर ही भीतर कर गयी अन्ध!...

ओझल होती-सी मुड़-भर कर सब कह गयी तुम्हारी छाया। मुझ को ही सोच-भरे यों खड़े-खड़े जो मुझ में उमड़ा वह...

एक दिन मैं राह के किनारे मरा पड़ा पाया जाऊँगा तब मुड़-मुड़ कर साधिकार लोग पूछेंगे : हमें पहले क्यों नहीं बताया गया...