चौंक उठी मैं
चौंक उठी मैं, मुझे न जाने क्यों सहसा आभास हुआ- तेरे स्नेहसिक्त कर ने मेरी अलकों का छोर छुआ! कितना दु:सह उल्लास हुआ! टूट गया वह जागृत-स्वप्न कि जिस में मन उलझाये थी- जाना, वही बुलाता है जिस पर मैं ध्यान जमाये थी। प्राणों में जिसे बसाये थी। कहाँ! किसी सूखे-से तरु से पात गिरे थे दो झर कर- और फरास किसी झोंके से आहत रोये थे सर-सर! दुख-भरे, दीन पीड़ा-जर्जर!

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