बन्दी-गृह की खिड़की
ओ रिपु! मेरे बन्दी-गृह की तू खिड़की मत खोल! बाहर-स्वतन्त्रता का स्पन्दन! मुझे असह उस का आवाहन! मुझ कँगले को मत दिखला वह दु:सह स्वप्न अमोल! कह ले जो कुछ कहना चाहे, ले जा, यदि कुछ अभी बचा है! रिपु हो कर मेरे आगे वह एक शब्द मत बोल! बन्दी हूँ मैं, मान गया हूँ, तेरी सत्ता जान गया हूँ- अचिर निराशा के प्याले में फिर वह विष मत घोल! अभी दीप्त मेरी ज्वाला है, यदपि राख ने ढँप डाला है उसे उड़ाने से पहले तू अपना वैभव तोल! नहीं! झूठ थी वह निर्बलता! भभक उठी अब वह विह्वलता! खिड़की? बन्धन? सँभल कि तेरा आसन डाँवाडोल! मुझ को बाँधे बेड़ी-कडिय़ाँ? गिन तू अपने सुख की घडिय़ाँ! मुझ अबाध के बन्दी-गृह की तू खिड़की मत खोल।

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