रोते-रोते कंठ-रोध है
रोते-रोते कंठ-रोध है जब हो जाता, उस विषन्न नीरव क्षण में ही कहती गिरा तुम्हारी, स्नेही शान्त भाव से- 'किस सुख में भूली हो, उन्मन?' -जिस से तड़प उठा है जीवन, निर्मम! वही भुलाता! गाते-गाते हो जाता स्वर-भंग कभी तो उस के कम्पन को इंगित कर, मादक आँखों में क्रीड़ा भर तुम कहते हो- 'गायन इतना मीठा क्यों है?' उस में विकल व्यथा-पुट जो है, प्रियतम? हाय, तभी तो!

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