ऋतुराज
शिशिर ने पहन लिया वसन्त का दुकूल, गन्धवह उड़ रहा पराग-धूल झूल, काँटों का किरीट धारे बने देवदूत पीत-वसन दमक उठे तिरस्कृत बबूल। अरे, ऋतुराज आ गया। पूछते हैं मेघ, 'क्या वसन्त आ गया?' हँस रहा समीर, 'वह छली भुला गया।' किन्तु मस्त कोंपलें सलज्ज सोचतीं- 'हमें कौन स्नेह-स्पर्श कर जगा गया?' वही ऋतुराज आ गया। प्रस्फुटन अभी नहीं लगी हुई है आस मुक्त हो चले अशक्त शीत-बद्ध दास। मुक्त-प्राण, सर्वत्राण चैत्र आ रहा- अंक भेंटने को तिलमिला उठे पलास। क्योंकि ऋतुराज आ गया। सिद्धि नहीं, दौड़ते हैं किन्तु सिद्धिदूत- वायु चल रही है आज स्निग्ध मन्त्रपूत। स्तब्ध हैं प्रतीक्षमान दिग्वधूटियाँ- जीवन-प्रवाह बह रहा है अनाहूत। क्योंकि ऋतुराज आ गया। अभी सुन पड़ी नहीं है परभृता की कूक, अभी कहीं कँपी नहीं है चातकी की हूक, किन्तु क्यों सिहर उठी है रोम-रोम में- प्यार की, अथक नये दुलार की भी भूख? क्योंकि ऋतुराज आ गया- अरे, ऋतुराज आ गया।

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