फिर गुज़रा वह
फिर गुज़रा वह घिसटे पैरों से गली की गच को सुख-माँजता मलते हाथ रुकते लटक जाती हैं बाँहें उमस में खप जाती मन-मसोस आहें कंचे से न कुछ देखते, न दिखाते आँखों के झरोखे ढोता है वह न घटते भार के पछताहट के धोखे।

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