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जो बहुत तरसा-तरसा कर मेघ से बरसा हमें हरसाता हुआ, -माटी में रीत गया। आह! जो हमें सरसाता है...

तू नहीं कहेगा? मैं फिर भी सुन ही लूँगा। किरण भोर की पहली भोलेपन से बतलावेगी, झरना शिशु-सा अनजान उसे दुहरावेगा,...

अरी ओ आत्मा री, कन्या भोली क्वाँरी महाशून्य के साथ भाँवरें तेरी रची गयीं। अब से तेरा कर एक वही गह पाएगा-...

धुन्ध से ढँकी हुई कितनी गहरी वापिका तुम्हारी कितनी लघु अंजली हमारी। कुहरे में जहाँ-तहाँ लहराती-सी कोई...

जितनी स्फीति इयत्ता मेरी झलकती है उतना ही मैं प्रेत हूँ। जितना रूपाकार-सारमय दीख रहा हूँ रेत हूँ। फोड़-फोड़ कर जितने को तेरी प्रतिमा...

हवा कहीं से उठी, बही- ऊपर ही ऊपर चली गयी। पथ सोया ही रहा किनारे के क्षुप चौंके नहीं...

रात में जागा अन्धकार की सिरकी के पीछे से मुझे लगा, मैं सहसा सुन पाया सन्नाटे की कनबतियाँ धीमी, रहस, सुरीली,...

एक चिकना मौन जिस में मुखर तपती वासनाएँ दाह खोती लीन होती हैं। उसी में रवहीन तेरा गूँजता है छन्द: ऋत विज्ञप्त होता है।...

किरण जब मुझ पर झरी मैं ने कहा मैं वज्र कठोर हूँ-पत्थर सनातन। किरण बोली: भला? ऐसा! तुम्हीं को तो खोजती थी मैं ...

सुनता हूँ गान के स्वर। बहुत-से दूत, बाल-चपल, तार, एक भव्य, मन्द्र गम्भीर, बलवती तान के स्वर। मैं वन में हूँ।...

वन में एक झरना बहता है एक नर-कोकिल गाता है वृक्षों में एक मर्मर कोंपलों को सिहराता है,...

यह महाशून्य का शिविर, असीम, छा रहा ऊपर नीचे यह महामौन की सरिता दिग्विहीन बहती है।...

क्षण-भर सम्मोहन छा जावे! क्षण-भर स्तम्भित हो जावे यह अधुनातन जीवन का संकुल- ज्ञान-रूढि़ की अनमिट लीकें, ह्रत्पट से पल-भर जावें धुल, मेरा यह आन्दोलित मानस, एक निमिष निश्चल हो जावे!...

असीम का नंगापन ही सीमा है रहस्यमयता वह आवरण है जिस से ढँक कर हम उसे असीम बना देते हैं। ज्ञान कहता है कि जो आवृत है, उस से मिलन नहीं हो सकता,...

झींगुरों की लोरियाँ सुला गई थीं गाँव को, झोंपड़े हिंडोलों-सी झुला रही हैं धीमे-धीमे...

लेकिन जान लेना तो अलग हो जाना है, बिना विभेद के ज्ञान कहाँ है? और मिलना है भूल जाना, जिज्ञासा की झिल्ली को फाड़ कर स्वीकृति के रस में डूब जाना, जान लेने की इच्छा को भी मिटा देना,...

मेरी छाती पर हवाएं लिख जाती हैं महीन रेखाओं में अपनी वसीयत...

सिर से कंधों तक ढँके हुए वे कहते रहे कि पीठ नहीं दिखाएंगे-- और हम उन्हें सराहते रहे।...

उड़ चल, हारिल, लिये हाथ में यही अकेला ओछा तिनका। ऊषा जाग उठी प्राची में-कैसी बाट, भरोसा किन का! शक्ति रहे तेरे हाथों में-छुट न जाय यह चाह सृजन की; शक्ति रहे तेरे हाथों में-रुक न जाय यह गति जीवन की!...

खिड़की एकाएक खुली, बुझ गया दीप झोंके से, हो गया बन्द वह ग्रन्थ जिसे हम रात-रात...

मैं ने सुना: और मैं ने बार-बार स्वीकृति से, अनुमोदन से और गहरे आग्रह से आवृत्ति की: 'मिट्टी से निरीह'- और फिर अवज्ञा से उन्हें रौंदता चला- जिन्हें कि मैं मिट्टी-सा निरीह मानता था।...

निविडाऽन्धकार को मूर्त रूप दे देने वाली एक अकिंचन, निष्प्रभ, अनाहूत, अज्ञात द्युति-किरण: आसन्न-पतन, बिन जमी ओस की अन्तिम ईषत्करण, स्निग्ध, कातर शीतलता...

मलय का झोंका बुला गया: खेलते से स्पर्श से वो रोम-रोम को कँपा गया- जागो, जागो, जागो सखि, वसन्त आ गया! जागो! पीपल की सूखी डाल स्निग्ध हो चली,...

रजनीगन्धा मेरा मानस! पा इन्दु-किरण का नेह-परस, छलकाता अन्तस् में स्मृति-रस उत्फुल्ल, खिले इह से बरबस, जागा पराग, तन्द्रिल, सालस, मधु से बस गयीं दिशाएँ दस, हर्षित मेरा जीवन-सुमनस-...

खोयी आँखें लौटीं: धरी मिट्टी का लोंदा रचने लगा कुम्हार खिलौने। मूर्ति पहली यह...

वह क्या लक्ष्य जिसे पा कर फिर प्यास रह गयी शेष बताने की, क्या पाया? वह कैसा पथ-दर्शक...

उलझती बाँह-सी दुबली लता अंगूर की। क्षितिज धुँधला। तीर-सी यह याद...

मेरे मत होओ पर अपने को स्थगित करो जैसा कि मैं अपने सुख-दुःख का नहीं हुआ दर्द अपना मैं ने खरीदा नहीं ...

झर गये तुम्हारे पात मेरी आशा नहीं झरी। जर गये तुम्हारे दिये अंग मेरी ही पीड़ा नहीं जरी।...

ओ साँस! समय जो कुछ लावे सब सह जाता है: दिन, पल, छिन-इनकी झाँझर में जीवन कहा-अनकहा रह जाता है।...

रोज़ सवेरे मैं थोड़ा-सा अतीत में जी लेता हूँ- क्यों कि रोज़ शाम को मैं थोड़ा-सा भविष्य में मर जाता हूँ।...

यह जाने का छिन आया पर कोई उदास गीत अभी गाना ना। चाहना जो चाहना...

बाहर सब ओर तुम्हारी/स्वच्छ उजली मुक्त सुषमा फैली है भीतर पर मेरी यह चित्त-गुहा/कितनी मैली-कुचैली है। स्रष्टा मेरे, तुम्हारे हाथ में तुला है, और/ध्यान में मैं हूँ, मेरा भविष्य है, जब कि मेरे हाथ में भी, ध्यान में भी, थैली है!...

उस के दो लघु नयन-तारकों की झपकी ने मुझ को-अच्छे-भले सयाने को!-पल भर में कर दिया अन्धा मेरा सीधा, सरल, रसभरा जीवन...

राही, चौराहों पर बचना! राहें यहाँ मिली हैं, बढ़ कर अलग-अलग हो जाएँगी जिस की जो मंज़िल हो आगे-पीछे पाएँगी पर इन चौराहों पर औचक एक झुटपुटे में...

है, अभी कुछ और है जो कहा नहीं गया : उठी एक किरण, धायी, क्षितिज को नाप गई, सुख की स्मिति कसक भरी,निर्धन की नैन-कोरों में काँप गई, बच्चे ने किलक भरी, माँ की वह नस-नस में व्याप गई।...

किसी का सत्य था, मैंने संदर्भ से जोड़ दिया। कोई मधु-कोष काट लाया था, मैंने निचोड़ लिया।...

अब देखिये न मेरी कारगुज़ारी कि मैं मँगनी के घोड़े पर सवारी पर ठाकुर साहब के लिए उन की रियाया से लगान...

हथौड़ा अभी रहने दो अभी तो हन भी हम ने नहीं बनाया। धरा की अन्ध कन्दराओं में से अभी तो कच्चा धातु भी हम ने नहीं पाया।...

मलयज का झोंका बुला गया खेलते से स्पर्श से रोम रोम को कंपा गया जागो जागो ...