चक्रान्त शिला – 6
रात में जागा अन्धकार की सिरकी के पीछे से मुझे लगा, मैं सहसा सुन पाया सन्नाटे की कनबतियाँ धीमी, रहस, सुरीली, परम गीतिमय। और गीत वह मुझ से बोला, दुर्निवार, अरे, तुम अभी तक नहीं जागे, और वह मुक्त स्रोत-सा सभी ओर बह चला उजाला! अरे, अभागे-कितनी बार भरा, अनदेखे, छलक-छलक बह गया तुम्हारा प्याला? मैं ने उठ कर खोल दिया वातायन- और दुबारा चौंका : वह सन्नाटा नहीं-झरोखे के बाहर ईश्वर गाता था। इसी बीच फिर बाढ़ उषा की आयी।

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