बिकाऊ
खोयी आँखें लौटीं: धरी मिट्टी का लोंदा रचने लगा कुम्हार खिलौने। मूर्ति पहली यह कितनी सुन्दर! और दूसरी- अरे रूपदर्शी! यह क्या है- यह विरूप विद्रूप डरौना? “मूर्तियाँ ही हैं दोनों, दोनों रूप: जगह दोनों की बनी हुई है। मेले में दोनों जावेंगी। यह भी बिकाऊ है, वह भी बिकाऊ है। “टिकाऊ-हाँ, टिकाऊ यह नहीं है वह भी नहीं है, मगर टिकाऊ तो मैं भी नहीं हूँ- तुम भी नहीं हो।” रुका वह एक क्षण आँखें फिर खोयीं, फिर लौटीं, फिर बोला वह: “होती बड़े दुःख की कहानी यह अन्त में अगर मैं यह भी न कह सकता, कि टिकाऊ तो जिस पैसे पर यह-वह दोनों बिकाऊ हैं (और हम-तुम भी क्या नहीं हैं?) वह भी नहीं है: बल्कि वही तो असली बिकाऊ है।”

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