चक्रान्त शिला – 1
यह महाशून्य का शिविर, असीम, छा रहा ऊपर नीचे यह महामौन की सरिता दिग्विहीन बहती है। यह बीच-अधर, मन रहा टटोल प्रतीकों की परिभाषा आत्मा में जो अपने ही से खुलती रहती है। रूपों में एक अरूप सदा खिलता है, गोचर में एक अगोचर, अप्रमेय, अनुभव में एक अतीन्द्रिय, पुरुषों के हर वैभव में ओझल अपौरुषेय मिलता है। मैं एक, शिविर का प्रहरी, भोर जगा अपने को मौन नदी के खड़ा किनारे पाता हूँ मैं, मौन-मुखर, सब छन्दों में उस एक साथ अनिर्वच, छन्द-मुक्त को गाता हूँ।

Read Next