वसन्त-गीत
मलय का झोंका बुला गया: खेलते से स्पर्श से वो रोम-रोम को कँपा गया- जागो, जागो, जागो सखि, वसन्त आ गया! जागो! पीपल की सूखी डाल स्निग्ध हो चली, सिरिस ने रेशम से वेणी बाँध ली; नीम के भी बौर में मिठास देख हँस उठी है कचनार की कली! टेसुओं की आरती सजा के बन गयी वधू वनस्थली! स्नेह-भरे बादलों से व्योम छा गया- जागो, जागो, जागो सखि, वसन्त आ गया! जागो! चेत उठी ढील देह में लहू की धार, बेध गयी मानस को दूर की पुकार गूँज उठा दिग्दिगन्त चीन्ह के दुरन्त यह स्वर बार-बार: सुनो सखि, सुनो बन्धु! प्यार ही में यौवन है यौवन में प्यार! आज मधु-दूत निज गीत गा गया- जागो, जागो, जागो, सखि, वसन्त आ गया! जागो!

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