रजनीगन्धा मेरा मानस
रजनीगन्धा मेरा मानस! पा इन्दु-किरण का नेह-परस, छलकाता अन्तस् में स्मृति-रस उत्फुल्ल, खिले इह से बरबस, जागा पराग, तन्द्रिल, सालस, मधु से बस गयीं दिशाएँ दस, हर्षित मेरा जीवन-सुमनस- लो, पुलक उठी मेरी नस-नस जब स्निग्ध किरण-कण पड़े बरस! तुम से सार्थक मेरी रजनी, पावस-रजनी से पुण्य-दिवस; तू सुधा-सरस, तू दिव्य-दरस, तू पुण्य-परस मेरा सुधांशु- इस अलस दिशा में चला विकस-रजनीगन्धा मेरा मानस!

Read Next