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चढ़ने लगती है
चढ़ने लगती है
अज्ञेय
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Hindi
ओ साँस! समय जो कुछ लावे सब सह जाता है: दिन, पल, छिन-इनकी झाँझर में जीवन कहा-अनकहा रह जाता है। बहू हो गयी ओझल: नदी पार के दोपहरी सन्नाटे ने फिर बढ़ कर इस कछार की कौली भर ली: वेणी आँचल से रेती पर झरती बूँदों की लहर-डोर थामे, ओ मन! तू बढ़ता कहाँ जाएगा?
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Last edited by
Chhotaladka
September 02, 2016
Added by
Chhotaladka
June 19, 2016
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