चक्रान्त शिला – 3
सुनता हूँ गान के स्वर। बहुत-से दूत, बाल-चपल, तार, एक भव्य, मन्द्र गम्भीर, बलवती तान के स्वर। मैं वन में हूँ। सब ओर घना सन्नाटा छाया है। तब क्वचित् कहीं मेरे भीतर ही यह कोई संगीत-वृन्द आया है। वन-खंडी की दिशा-दिशा से गूँज-गूँज कर आते हैं आह्वान के स्वर। भीतर अपनी शिरा-शिरा से उठते हैं आह्लाद और सम्मान के स्वर। पीछे, अध-डूबे, अवसान के स्वर। फिर सबसे नीचे, पीछे, भीतर, ऊपर, एक सहस आलोक-विद्ध उन्मेष, चिरन्तन प्राण के स्वर। सुनता हूँ गान के स्वर बहुत से दूत, बाल-चपल, तार; एक भव्य, मन्द्र गम्भीर, बलवती तान के स्वर।

Read Next