मिट्टी ही ईहा है
मैं ने सुना: और मैं ने बार-बार स्वीकृति से, अनुमोदन से और गहरे आग्रह से आवृत्ति की: 'मिट्टी से निरीह'- और फिर अवज्ञा से उन्हें रौंदता चला- जिन्हें कि मैं मिट्टी-सा निरीह मानता था। किन्तु वसन्त के उस अल्हड़ दिन में एक भिदे हुए, फटे हुए लोंदे के बीच से बढ़ कर अंकुर ने तुनुक कर कहा-'मिट्टी ही ईहा है!' कितना तुच्छ है तुम्हारा अभिमान जो कि मिट्टी नहीं हो- जो कि मिट्टी को रौंदते हो- जो कि ईहा को रौंदते हो- 'क्योंकि मिट्टी ही ईहा है!'

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