मैं-तुम क्या? बस सखी-सखा
मैं-तुम क्या? बस सखी-सखा! तुम होओ जीवन के स्वामी, मुझ से पूजा पाओ- या मैं होऊँ देवी जिस पर तुम अघ्र्य चढ़ाओ, तुम रवि जिस को तुहिन बिन्दु-सी मैं मिट कर ही जानूँ- या मैं दीप-शिखा जिस पर तुम जल-जल जीवन पाओ; क्यों यह विनिमय जब हम दोनों ने अपना कुछ नहीं रखा? मैं-तुम क्या? बस सखी-सखा! क्यों तुम दूर रहो जैसे सन्ध्या से सन्ध्या-तारा? मैं क्यों बद्ध, अलग, जैसे वारिधि से अलग किनारा? हमें बाँधने का साहस क्यों मधुर नियम भी पाएँ? तुम अबाध, मैं भी अबाध, हो अनथक स्नेह हमारा! प्रिय-प्रेयसि रह कर कब किसने उस का सच्चा रूप लखा! मैं-तुम क्या? बस सखी-सखा!

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