अँधेरे अकेले घर में
अँधेरे अकेले घर में अँधेरी अकेली रात । तुम्हीं से लुक-छिप कर आज न जाने कितने दिन बाद तुम से मेरी मुलाक़ात । और इस अकेले सन्नाटे में उठती है रह-रह कर एक टीस-सी अकस्मात‍ कि कहने को तुम्हें इस इतने घने अकेले में मेरे पास कुछ भी नहीं है बात। क्यों नहीं पहले कभी मैं इतना गूँगा हुआ? क्यों नहीं प्यार के सुध-भूले क्षणों में मुझे इस तीखे ज्ञान ने छुआ कि खो देना तो देना नहीं होता- भूल जाना और, उत्सर्ग है और बात: कि जब तक वाणी हारी नहीं और वह हार मैंने अपने में पूरी स्वीकारी नहीं, अपनी भावना, संवेदना भी वारी नहीं- तब तक वह प्यार भी निरा संस्कार है,संस्कारी नहीं। हाय, कितनी झीनी ओट में झरते रहे आलोक के सोते अवदात- और मुझे घेरे रही अँधेरे अकेले घर में अँधेरी अकेली रात।

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