नन्ही शिखा
जब झपक जाती हैं थकी पलकें जम्हाई-सी स्फीत लम्बी रात में, सिमट कर भीतर कहीं पर संचयित कितने न जाने युग-क्षणों की राग की अनुभूतियों के सार को आकार दे कर, मुग्ध मेरी चेतना के द्वार से तब नि:सृत होती है अयानी एक नन्ही-सी शिखा। काँपती भी नहीं निद्रा किन्तु मानो चेतना पर किसी संज्ञा का अनवरत सूक्ष्मतम स्पन्दन जता देता है मुझे, नर्तिता अपवर्ग की अप्सरा-सी वह शिखा मेरा भाल छूती है, नेत्र छूती है, वस्त्र छूती है, गात्र को परिक्रान्त कर के, ठिठक छिन-भर उमँग कौतुक से बोध को ही आँज जाती है किसी एकान्त अपने दीप्त रस से। और तब संकल्प मेरा द्रवित, आहुत, स्नेह-सा उत्सृष्ट होता है शिखा के प्रति : धीर, संशय-हीन, चिन्तातीत! वह चाहे जला डाले। (यदपि वह तो वासना का धर्म है- और यह नन्ही शिखा तो अनकहा मेरे हृदय का प्यार है!)

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