नहीं काँपता है अब अंतर
नहीं काँपता है अब अन्तर। नहीं कसकती अब अवहेला, नहीं सालता मौन निरन्तर! तुझ से आँख मिलाता हूँ अब, तो भी नहीं हुलसता है उर, किन्तु साथ ही कमी राग की देख नहीं होता हूँ आतुर। नहीं चाहता अब परिचय तेरे पर कुछ अधिकार दिखाना- नहीं चाहता तेरा होना, या प्रतिदान दया का पाना। देख तुझे पर, पूर्व-प्रेम की प्रतिक्रिया से हो कर विचलित- नहीं फणी-सा रुक जाता हूँ पीड़ा से अब हो कर स्तम्भित। तुझे 'मित्र' कहते अब वाणी मेरी बिल्कुल नहीं झिझकती- तुझे, अपरिचित नहीं, किन्तु जो उस से अधिक नहीं कुछ भी! लुटा चुका तेरा प्रणयी का सिंहासन मेरा अभ्यन्तर- नहीं कसकता रिक्त हुआ भी, नहीं सालती याद निरन्तर!

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