चरण पर धर चरण
चरण पर धर चरण चरण पर धर सिहरते-से चरण, आज भी मैं इस सुनहले मार्ग पर- पकड़ लेने को पदों से मृदुल तेरे पद-युगल के अरुण-तल की छाप वह मृदुतर जिसे क्षण-भर पूर्व ही निज लोचनों की उछटती-सी बेकली से मैं चुका हूँ चूम बारम्बार- कर रहा हूँ, प्रिये, तेरा मैं अनुकरण मुग्ध, तन्मय- चरण पर धर सिहरते-से चरण। पाश्र्व मेरा- किन्तु इस से क्या कि मेरे साथ चलता कौन है, जब कि वह है साथ मेरी यन्त्र-चालित देह के, और मैं-मेरा परम तम तत्त्व वलयित साथ तेरे प्राण के : जब कि आत्मा यह अनाहत और अक्षत, चरण-तल की छाप के उस कनक-शतदल कमल से बिछुड़ी अकेली दोल पंखुड़ी में चमकती लोल जल की बूँद-सा पर-ज्योति-गुम्फित, तद्गत और अतिश: मौन है!

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