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द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र! हे स्रस्त-ध्वस्त! हे शुष्क-शीर्ण! हिम-ताप-पीत, मधुवात-भीत, तुम वीत-राग, जड़, पुराचीन!! ...

मदिराधर चुंबन, प्रसन्न मन, मेरा यही भजन औ’ पूजन! प्रकृति वधू से पूछा मैंने प्रेयसि, तुझको दूँ क्या स्त्री-धन?...

हाय, कोमल गुलाब के गाल झुलस दे ऊष्मा का अभिशाप? प्रथम यौवन, कलियों के जाल स्वयं कुम्हला जाएँ चुपचाप!...

नव हे, नव हे! नव नव सुषमा से मंडित हो चिर पुराण भव हे! नव हे!--...

लता द्रुमों, खग पशु कुसुमों में सकल चराचर में अविकार भरी लबालब जीवन मदिरा उमर कह रहा सोच विचार!...

फिर वीणा मधुर बजाओ! वाणी नव स्वर में गाओ! उर के कंपित तारों में झंकार अमर भर जाओ!...

तू प्रसन्न रह, महाकाल यह है अनंत, विधि गति अनिवार, नक्षत्रों की मणियों से नित खचित रहेगा गगन अपार!...

यहाँ नीलिमा हँसती निर्मल, कँपता हरित तृणों का अंचल, गाता फेन ग्रथित जल कल कल! अरे त्याग तप संयम में रत!...

उमर मत माँग दया का दान, जगत छल का मत कर विश्वास! चाहता विभव-भोग, सम्मान? ओस जल से कब बुझती प्यास!...

गाता खग प्रातः उठकर— सुन्दर, सुखमय जग-जीवन! गाता खग सन्ध्या-तट पर— मंगल, मधुमय जग-जीवन!...

मा! मेरे जीवन की हार तेरा मंजुल हृदय-हार हो, अश्रु-कणों का यह उपहार; मेरे सफल-श्रमों का सार...

सुनता हूँ रमजान माह का उदय हुआ अब पीला चाँद, मदिरालय की गलियों में अब फिर न सकूँगा कर फ़रियाद!...

इस पल पल की पीड़ा का कह, मोल कहाँ है, साक़ी! यह स्वर्ग मर्त्य से बढ़कर अनमोल दवा है, साक़ी!...

राह चलते चुभता जो शूल वही उसके स्वभाव अनुकूल! कामिनी की वह कुंचिक अलक कभी था कुटिल भृकुटि, चल पलक!...

देख रहा हूँ आज विश्व को मैं ग्रामीण नयन से, सोच रहा हूँ जटिल जगत पर, जीवन पर जन मन से। ज्ञान नहीं है, तर्क नहीं है, कला न भाव विवेचन, जन हैं, जग है, क्षुधा, काम, इच्छाएँ जीवन साधन।...

गर्जन कर मानव-केशरि! मर्म-स्पृह गर्जन,-- जग जावे जग में फिर से सोया मानवपन!...

सौ सौ बाँहें लड़ती हैं, तुम नहीं लड़ रहे, सौ सौ देहें कटती हैं, तुम नहीं कट रहे, हे चिर मृत, चिर जीवित भू जन! अंध रूढिएँ अड़ती हैं, तुम नहीं अड़ रहे,...

लो, छन छन, छन छन, छन छन, छन छन, नाच गुजरिया हरती मन! उसके पैरों में घुँघरू कल,...

यहाँ न पल्लव वन में मर्मर, यहाँ न मधु विहगों में गुंजन, जीवन का संगीत बन रहा यहाँ अतृप्त हृदय का रोदन! ...

सागर की लहर लहर में है हास स्वर्ण किरणों का, सागर के अंतस्तल में अवसाद अवाक् कणों का! ...

अधर मधु किसने किया सृजन? तरल गरल! रची क्यों नारी चिर निरुपम? रूप अनल!...

फूलों के कोमल करतल पर ओसों के कण लगते सुंदर, मुग्धा का मदिरालस आनन उमर मुग्ध कर लेता अंतर!...

खड़ा द्वार पर, लाठी टेके, वह जीवन का बूढ़ा पंजर, चिमटी उसकी सिकुड़ी चमड़ी हिलते हड्डी के ढाँचे पर।...

इस जग की चल छाया चित्रित रंग यवनिका के भीतर छिप जाएँगें जब हम प्रेयसि, जीवन का छल अभिनय कर!...

विभा, विभा जगत ज्योति तमस द्विभा! झरता तम का बादल इंद्रधनुष रँग में ढल...

शत बाहु-पद, शत नाम-रूप, शत मन, इच्छा, वाणी, विचार, शत राग-द्वेष, शत क्षुधा-काम,-- यह जग-जीवन का अन्धकार!...

गा, कोकिल, बरसा पावक-कण! नष्ट-भ्रष्ट हो जीर्ण-पुरातन, ध्वंस-भ्रंस जग के जड़ बन्धन! पावक-पग धर आवे नूतन,...

बढ़ो अभय, विश्वास-चरण धर! सोचो वृथा न भव-भय-कातर! ज्वाला के विश्वास के चरण, जीवन मरण समुद्र संतरण,...

निस्तल यह जीवन रहस्य, यदि थाह न मिले, वृथा है खेद! सौ मुख से सौ बातें कहलें लोग भले, तू रह अक्लेद!...

काल अश्व यह तप शक्ति का रूप चिर अंतर आशा पृष्ठ पर धावमान अति दिव्य वेग भर! महावीय यह सप्त रश्मियों से हो शोभित चला रहा भव को सहस्रधर, प्राण से श्वसित!...

गगन में इंद्रधनुष, अवनि में इंद्रधनुष! नयन में दृष्टि किरण श्रवण में शरद गगन...

छलक नत नीलम घट से मौन मुसकुराती आती जब प्रात, स्फटिक प्याली कर में धर, बंधु, ढाल मदिरा का फेन प्रपात!...

बाला सुंदर, हाला घट-भर, उमर हमारे प्रिय सहचर नित! उर का सुख दीपक बन हँसमुख सुहृद् सभा करता आलोकित!...

बाँधो, छबि के नव बन्धन बाँधो! नव नव आशाकांक्षाओं में तन-मन-जीवन बाँधो! छबि के नव--...

जगत छलना की उन्हें न चाह, धीर जो नर, धीमान्! सुरा का बहता रहे प्रवाह, डूब जाएँ तन प्राण!...

अररर....... मचा खूब हुल्लड़ हुड़दंग, धमक धमाधम रहा मृदंग, उछल कूद, बकवाद, झड़प में...

विद्रुम औ' मरकत की छाया, सोने-चाँदी का सूर्यातप; हिम-परिमल की रेशमी वायु, शत-रत्न-छाय, खग-चित्रित नभ!...

मेरे नयनों के आँसू का एक बूँद यह पारावार, क्रीड़ा की प्रिय सामग्री का एक सीप यह व्योम उभार!...

साक़ी, ईश्वर है करुणाकर, उसकी कृपा अपार क्षमामय; दुष्कृत से फिर तू क्यों वंचित, सब के लिए समान सुरालय!...

हे मेरे अमर सुरा वाहक, निज प्रणय ज्वाल सी सुरा लाल तुम भरो हृदय घट में मादक! चिर स्नेह हीन मेरा दीपक...