काल अश्व
काल अश्व यह तप शक्ति का रूप चिर अंतर आशा पृष्ठ पर धावमान अति दिव्य वेग भर! महावीय यह सप्त रश्मियों से हो शोभित चला रहा भव को सहस्रधर, प्राण से श्वसित! भुवन भुवन सब घूम रहे चक्रों से अविरत अहा अश्व यह खींच रहा अश्रांत विश्व रथ! गतद्रष्टा ऋषि त्रिकाल दर्शी जो कविगण तिस पर करते धीर विपश्चित ही आरोहण! निष्ठुर विधि से पीड़ित जग के शेष चराचर परिवर्तन चक्रों में पिसकर होते जर्जर! वाम रूप में ही जिनका मन मोहित सीमित सबल पदाघातों से वे नित होते मर्दित! काल बोध विस्तृत करता मन को देता बल निखिल वस्तुएँ क्षण घटनाएँ जग में केवल! बहिरंतर जो निज को कर सकते संयोजित नहीं व्यापती काल अश्वगति उनको निश्वित! अथवा जो निर्द्वन्द्व शुद्ध निर्लिप्त ऊर्ध्वचित्, दिव्य तुरग पर चढ़ जाते वे पार आत्मजित्!

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