गर्जन कर मानव-केशरि!
गर्जन कर मानव-केशरि! मर्म-स्पृह गर्जन,-- जग जावे जग में फिर से सोया मानवपन! काँप उठे मानस की अन्ध गुहाओं का तम, अक्षम क्षमताशील बनें जावें दुबिधा, भ्रम! निर्भय जग-जीवन कानन में कर हे विचरण, काँप मरें गत खर्व मनुजता के मर्कट गण! प्रखर नभर नव जीवन की लालसा गड़ा कर छिन्न-भिन्न करदे गतयुग के शव को, दुर्धर! गर्जन कर, मानव-केशरि! प्राण-प्रद गर्जन,-- जागें नवयुग के खग, बरसा जीवन-कूजन!

Read Next