गाता खग प्रातः उठ कर
गाता खग प्रातः उठकर— सुन्दर, सुखमय जग-जीवन! गाता खग सन्ध्या-तट पर— मंगल, मधुमय जग-जीवन! कहती अपलक तारावलि अपनी आँखों का अनुभव,-- अवलोक आँख आँसू की भर आतीं आँखें नीरव! हँसमुख प्रसून सिखलाते पल भर है, जो हँस पाओ, अपने उर की सौरभ से जग का आँगन भर जाओ। उठ-उठ लहरें कहतीं यह हम कूल विलोक न पावें, पर इस उमंग में बह-बह नित आगे बढ़ती जावें। कँप-कँप हिलोर रह जाती— रे मिलता नहीं किनारा! बुद्बुद् विलीन हो चुपके पा जाता आशय सारा।

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