अच्छा भला एक जन राह चला जा रहा है। जैसे दूर के आवारे बादल की हलकी छाँह पकी बालियों का शालिखेत लील ले- कारिख की रेख खींच या कि कोई काट डाले लिखतम...
मानव से कुछ ही ऊँचे, पर देव के समीप! प्रियतम, प्राण, जीवन-दीप! पार्थिव सुख-दुख ओछे बन्धन, कभी देख निर्बलता का क्षण, घोट डालते क्रूर करों से उर में छिपा हुआ भी स्पन्दन!...
वापी में तूने कुचले हुए शहतूत क्यों फेंके, लड़की? क्या तूने चुराये- पराये शहतूत यहाँ खाये हैं?...
सागर के किनारे हम सीपियाँ-पत्थर बटोरते रहे, सागर उन्हें बार-बार लहर से डुलाता रहा, धोता रहा।...
एक तीक्ष्ण अपांग से कविता उत्पन्न हो जाती है, एक चुम्बन में प्रणय फलीभूत हो जाता है, पर मैं अखिल विश्व का प्रेम खोजता फिरता हूँ, क्यों कि मैं उस के असंख्य हृदयों का गाथाकार हूँ।...
मेरे आह्वान से अगर प्रेत जागते हैं, मेरे सगो, मेरे भाइयो, तो तुम चौंकते क्यों हो? मुझे दोष क्यों देते हो? वे तुम्हारे ही तो प्रेत हैं तुम्हें किसने कहा था, मेरे भाइयो, कि...
यह नहीं कि मैं ने सत्य नहीं पाया था यह नहीं कि मुझ को शब्द अचानक कभी-कभी मिलता है : दोनों जब-तब सम्मुख आते ही रहते हैं। प्रश्न यही रहता है : ...
पथ पर निर्झर-रूप बहे। प्रलयंकर पीड़ाएँ बोलीं, 'तेरी प्रणय-क्रियाएँ हो लीं।' किस उत्सर्ग-भरे सुख से मैं ने उन के आघात सहे! मैं ही नहीं, अखिल जग ही तो, रहा देखता उसे, स्तिमित हो!...
ड्योढ़ी पर तेल चुआने के लिए लुटिया तो मँगनी भी मिल जाएगी; उत्सव के लिए जो मंगली-घड़ी चाहिए वह क्या इसी लिलार-रेखा पर आएगी?...
काल की गदा एक दिन मुझ पर गिरेगी। गदा मुझे नहीं नाएगी : पर उस के गिरने की नीरव छोटी-सी ध्वनि...
टूट गये सब कृत्रिम बन्धन! नदी लाँघ कूलों की सीमा, अर्णव-ऊर्मि हुई, गति-भीमा; अनुल्लंघ्य, यद्यपि अति-धीमा है तुझ को मेरा आवाहन! टूट गये सब कृत्रिम बन्धन!...
कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानमती ने कुनबा जोड़ा कुनबे ने भानमती गढ़ी रेशम से मांडी, सोने में मढ़ी...
मन बहुत सोचता है कि उदास न हो पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए? शहर के दूर के तनाव-दबाव कोई सह भी ले, पर यह अपने ही रचे एकांत का दबाब सहा कैसे जाए! ...
चट्टान से टकरा कर हवा उसी के पैरों में लिख जाती है लहरीले सौ-सौ रूप और तुम्हारे रूप की चट्टान से...
आज तुम शब्द न दो, न दो, कल भी मैं कहूँगा। तुम पर्वत हो, अभ्र-भेदी शिला-खंडों के गरिष्ठ पुंज चाँपे इस निर्झर को रहो, रहो, तुम्हारे रन्ध्र-रन्ध्र से तुम्हीं को रस देता हुआ फूट कर मैं बहूँगा।...
आँसू से भरने पर आँखें और चमकने लगती हैं। सुरभित हो उठता समीर जब कलियाँ झरने लगती हैं। बढ़ जाता है सीमाओं से जब तेरा यह मादक हास, समझ तुरत जाता हूँ मैं-'अब आया समय बिदा का पास।'...
मुझे जो बार-बार यह भावना होती है कि तुम मुझे प्रेम नहीं करतीं, यह केवल लालसा की स्वार्थमयी प्रेरणा है। मैं अपने को संसार का केन्द्र समझ कर चाहता हूँ कि वह मेरी परिक्रमा करे। मुझे अभी तक यह ज्ञान नहीं हुआ कि केन्द्र न मैं हूँ न तुम; जिस प्रकार हमारा संसार मेरे और तुम्हारे बिना नहीं रह सकता, उसी प्रकार हम-तुम भी संसार से स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रखते। मैं, तुम और संसार, तीनों का एकीकरण ही हमारे प्रेम का सच्चा रूप है। इस ज्ञान के उद्रेक में मैं फिर, अपनी स्वतन्त्र इच्छा से तुम्हें वरता हूँ। विवश हो कर नहीं, मूक अभिमान से दंशित हो कर नहीं-अपने, तुम्हारे, और संसार के अनन्त ऐक्य की संज्ञा से प्रेरित हो कर पुन: तुम्हारे आगे अपने को निछावर करता हूँ।...
हवा से सिहरती हैं पत्तियाँ-किन्तु झरने के लिए। उमँगती हैं छालियाँ किसी दूर कछार पर खा कर पछाड़ें फिर बिखरने के लिए! मरणधर्मा है सभी कुछ किन्तु फिर भी वहो, मीठी हवा,...
उजड़ा सुनसान पार्क, उदास गीली बेंचें- दूर-दूर के घरों के झरोखों से निश्चल, उदास परदों की ओट से झरे हुए आलोक को -वत्सल गोदियों से मोद-भरे बालक मचल मानो गये हों-...
प्रियतम, पूर्ण हो गया गान! हम अब इस मृदु अरुणाली में होवें अन्तर्धान! लहर-लहर का कलकल अविरल, काँप-काँप अब हुआ अचंचल व्यापक मौन मधुर कितना है, गद्गद अपने प्राण!...
चातक पिउ बोलो बोलो! झम-झम-झम पानी सुन-सुन रात बिहानी दिग्वधु! घूँघट खोलो खोलो! नभ खुल-खुल खिल आया भू-पट हरियाया...
आशा के उठते स्वर पर मैं मौन, प्राण, रह जाऊँ! आशा, मधु, द्वार प्रणय का-इस से आगे क्या गाऊँ? जीवन-भर धक्के खाये, आहत भी हुए विलम्बित; पर दीप रहे यदि जलता तो शिखा क्यों न हो कम्पित?...
शान्त हो! काल को भी समय थोड़ा चाहिए। जो घड़े-कच्चे, अपात्र!-डुबा गये मँझधार तेरी सोहनी को चन्द्रभागा की उफनती छालियों में उन्हीं में से उसी का जल अनन्तर तू पी सकेगा...
चलो, ठीक है कि आज़ादी के बीस बरस से तुम्हें कुछ नहीं मिला, पर तुम्हारे बीस बरस से आज़ादी को (या तुम से बीस बरस की आज़ादी को)...
क्या दिया था तुम्हारी एक चितवन ने उस एक रात जो फिर इतनी रातों ने मुझे सही-सही समझाया नहीं? क्या कह गयी थी बहकी अलक की ओट तुम्हारी मुस्कान एक बात जिस का अर्थ फिर किसी प्रात की किसी भी खुली हँसी ने...