आज़ादी के बीस बरस
चलो, ठीक है कि आज़ादी के बीस बरस से तुम्हें कुछ नहीं मिला, पर तुम्हारे बीस बरस से आज़ादी को (या तुम से बीस बरस की आज़ादी को) क्या मिला? उन्नीस नंगे शब्द? अठारह लचर आन्दोलन? सत्रह फटीचर कवि? सोलह लुंजी-हाँ, कह लो, कलाएँ- (पर चोरी, चापलूसी, सेंध मारना, जुआखोरी, लल्लोपत्तो और लबारियत ये सब पारम्परिक कलाएँ थीं आज़ादी के बीस बरस क्यों, बीस पीढ़ी पहले की!) पन्द्रह...बारह...दस...यों पाँच, चार और तीन और दो और एक और फिर इनक़लाबी सुन्न जिस की गिड्डुली में बँधे तुम अपने को सिद्ध, पीर, औलिया जान बैठे हो! क्या हर तिकठी ढोने वाला हर डोम हर जल्लाद का हर पिट्ठू सिर्फ ढुलाई के मिस मसीहा हो जाता है? ओ मेरे मसीहा, हाय मेरे मसीहा! आज़ादी के बीस बरस निकल गये और तुम्हें कुछ नहीं मिला- एक कमबख़्त कम से कम पहचाना जा सकने वाला जटियल सलीब भी नहीं : जब कि इतने-इतने मन्दिरों और रथों से इतनी-इतनी काठ-मूर्तियाँ तोड़ी-उखाड़ी जा कर रोज़ बिक रही हैं इतने अच्छे दामों! हाय मेरे मसीहा! बिना सलीब के तुम्हें कोई पहचाने भी तो कैसे और जो तुम्हें नहीं पहचाने उस की आज़ादी क्या? पहचान तो तुम्हें, फ़क़त तुम्हें, हुई- आज़ादी की भी और अपनी भी! आज़ादी के बीस बरस से बीस बरस की आज़ादी से तुम्हें कुछ नहीं मिला : मिली सिर्फ आज़ादी!

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