चितवन
क्या दिया था तुम्हारी एक चितवन ने उस एक रात जो फिर इतनी रातों ने मुझे सही-सही समझाया नहीं? क्या कह गयी थी बहकी अलक की ओट तुम्हारी मुस्कान एक बात जिस का अर्थ फिर किसी प्रात की किसी भी खुली हँसी ने बताया नहीं? इधर मैं निःस्व हुआ, पर अभी चुभन यह सालती है कि मैं ने तुम्हें कुछ दिया नहीं, बार-बार हम मिले, हँसे, हम ने बातें कीं, फिर भी यह सच है कि हम ने कुछ किया नहीं। उधर तुम से अजस्र जो मिला, सब बटोरता रहा, पर इसी लुब्ध भाव से कि मैं ने कुछ पाया नहीं! दुहरा दो, दुहरा दो, तुम्हीं बता दो उस चितवन ने क्या कहा था जिस में तुम ही तुम थे, संसार भी डूब गया था और मैं भी नहीं रहा था...

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