हवा कहीं से उठी, बही
हवा कहीं से उठी, बही- ऊपर ही ऊपर चली गई। पथ सोया ही रहा : किनारे के क्षुप चौंके नहीं न काँपी डाल, न पत्ती कोई दरकी अंग लगी लघु ओस-बूँद भी एक न ढरकी। वन-खण्डी में सधे खड़े पर अपनी ऊँचाई में खोए-से चीड़ जाग कर सिहर उठे सनसना गए। एकस्वर नाम वही अनजाना साथ हवा के गा गए। (2) ऊपर ही ऊपर जो हवा ने गाया, देवदारु ने दोहराया, जो हिम-चोटियों पर झलका, जो साँझ के आकाश से छलका- वह किस ने पाया जिस ने आयत्त करने की आकाँक्षा का हाथ बढ़ाया ? आह ! वह तो मेरे दे दिए गए हृदय में उतरा, मेरे स्वीकारी आँसू में ढलका : वह अनजाना अनपहचाना ही आया। वह इन सब के- और मेरे- माध्यम से अपने को अपने में लाया, अपने में समाया।

Read Next