माहीवाल से
शान्त हो! काल को भी समय थोड़ा चाहिए। जो घड़े-कच्चे, अपात्र!-डुबा गये मँझधार तेरी सोहनी को चन्द्रभागा की उफनती छालियों में उन्हीं में से उसी का जल अनन्तर तू पी सकेगा औ' कहेगा, 'आह, कितनी तृप्ति!' क्रौंच बैठा हो कभी वल्मीक पर तो मत समझ वह अनुष्टुप् बाँचता है संगिनी से स्मरण के- जान ले, वह दीमकों की टोह में है। कविजनोचित न हो चाहे, यही सच्चा साक्ष्य है : एक दिन तू सोहनी से पूछ लेना।

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