पथ पर निर्झर-रूप बहे
पथ पर निर्झर-रूप बहे। प्रलयंकर पीड़ाएँ बोलीं, 'तेरी प्रणय-क्रियाएँ हो लीं।' किस उत्सर्ग-भरे सुख से मैं ने उन के आघात सहे! मैं ही नहीं, अखिल जग ही तो, रहा देखता उसे, स्तिमित हो! सृष्टि विवश बह गयी वहाँ तो गति-रोधन की कौन कहे! प्रणय? प्राण तो मर कर जागे! क्षण में लुट कर उस के आगे। अनुभूति-द्युति-अनुगम-इच्छुक गिरते-पड़ते प्राण रहे! पथ पर निर्झर-रूप बहे!

Read Next