वसन्त आया तो है
पर बहुत दबे-पाँव
यहाँ शहर में
हम ने उस की पहचान खो दी है
उसने हमें चौंकाया नहीं।
पर घाटी की दुःखी कठैठी ढाल पर
कई सूखी नामहीन बूटियाँ रहीं
जिन्हें उसने भुलाया नहीं।
सब एकाएक एक ही लहर में
लहलहा उठीं
स्वयंवरा वधुओं-सी!
वर तो नीरव रहा
वधुओं की सखियाँ गा उठीं।