मानव से कुछ ही ऊँचे
मानव से कुछ ही ऊँचे, पर देव के समीप! प्रियतम, प्राण, जीवन-दीप! पार्थिव सुख-दुख ओछे बन्धन, कभी देख निर्बलता का क्षण, घोट डालते क्रूर करों से उर में छिपा हुआ भी स्पन्दन! कब की भूली, आज जगी हूँ, पुन: खोजने तुझे लगी हूँ, इतने नीरस दिन बीते पर अब भी तेरे प्रेम पगी हूँ। तुझ से प्लावित मेरा स्तर-स्तर फिर भी क्षण-भर तुझे अलग कर, क्षमा माँग विनती करती हूँ-प्रेम यदपि है सदा अनश्वर, उसे भूमि से ऊँचा रखना, दिव्य के समीप! प्रियतम, प्राण, जीवन-दीप!

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