उस राख का पाथेय लेकर मैं चलता हूँ उस मौन की भाषा में मैं गाता हूँ : उस अलक्षित, अपरिमेय निमिष में मैं तुम्हारे पास जाता हूँ, पर...
मैं वह धनु हूँ, जिसे साधने में प्रत्यंचा टूट गई है। स्खलित हुआ है बाण, यदपि ध्वनि दिग्दिगन्त में फूट गई है--...
हम ने भी सोचा था कि अच्छी चीज़ है स्वराज हम ने भी सोचा था कि हमारा सिर ऊँचा होगा ऐक्य में। जानते हैं पर आज अपने ही बल के...
द्वार के आगे और द्वार: यह नहीं कि कुछ अवश्य है उन के पार-किन्तु हर बार मिलेगा आलोक, झरेगी रस-धार।...
सन्ध्या की किरण परी ने उठ अरुण पंख दो खोले, कम्पित-कर गिरि शिखरों के उर-छिपे रहस्य टटोले। देखी उस अरुण किरण ने कुल पर्वत-माला श्यामल- बस एक शृंग पर हिम का था कम्पित कंचन झलमल।...
क्रांति है आवर्त, होगी भूल उसको मानना धारा: विप्लव निज में नहीं उद्दिष्ट हो सकता हमारा। जो नहीं उपयोज्य, वह गति शक्ति का उत्पात भर है: स्वर्ग की हो-माँगती भागीरथी भी है किनारा।...
कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानमती ने कुनबा जोड़ा कुनबे ने भानमती गढ़ी रेशम से भाँड़ी, सोने से मढ़ी...
प्राण तुम्हारी पदरज फूली मुझको कंचन हुई तुम्हारे चरणों की यह धूली! आई थी तो जाना भी था - फिर भी आओगी, दुःख किसका?...
यह दीप अकेला स्नेह भरा है गर्व भरा मदमाता पर इसको भी पंक्ति को दे दो यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा...
डरो मत शोषक भैया : पी लो मेरा रक्त ताज़ा है, मीठा है हृद्य है पी लो शोषक भैया : डरो मत। शायद तुम्हें पचे नहीं-- अपना मेदा तुम देखो, मेरा क्या दोष है।...
पहाड़ियों पर घिरी हुई इस छोटी-सी घाटी में ये मुँहझौंसी चिमनियाँ बराबर धुआँ उगलती जाती हैं। भीतर जलते लाल धातु के साथ...
फूल काँचनार के, प्रतीक मेरे प्यार के! प्रार्थना-सी अर्धस्फुट काँपती रहे कली, पत्तियों का सम्पुट, निवेदिता ज्यों अंजली।...
बह चुकी बहकी हवाएँ चैत की कट गईं पूलें हमारे खेत की कोठरी में लौ बढ़ा कर दीप की गिन रहा होगा महाजन सेंत की।...
ओ पिया, पानी बरसा ! घास हरी हुलसानी मानिक के झूमर-सी झूमी मधुमालती झर पड़े जीते पीत अमलतास...
सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गई थी और एक चिड़िया अभी-अभी गा गई थी। मैनें धूप से कहा: मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार चिड़िया से कहा: थोड़ी मिठास उधार दोगी? ...
बोलना सदा सब के लिए और मीठा बोलना। मेरे लिए कभी सहसा थम कर बात अपनी तोलना और फिर मौन धार लेना। जागना सभी के लिए सब को मान कर अपना...
भोर बेला--नदी तट की घंटियों का नाद। चोट खा कर जग उठा सोया हुआ अवसाद। नहीं, मुझ को नहीं अपने दर्द का अभिमान--- मानता हूँ मैं पराजय है तुम्हारी याद।...
पार्श्व गिरि का नम्र, चीड़ों में डगर चढ़ती उमंगों-सी। बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा। विहग-शिशु मौन नीड़ों में।...
व्यथा सब की, निविडतम एकान्त मेरा। कलुष सब का स्वेच्छया आहूत; सद्यधौत अन्तःपूत बलि मेरी। ध्वान्त इस अनसुलझ संसृति के...
न कुछ में से वृत्त यह निकला कि जो फिर शून्य में जा विलय होगा किन्तु वह जिस शून्य को बाँधे हुए है- उस में एक रूपातीत ठंडी ज्योति है।...
घन अकाल में आये, आ कर रो गये। अगिन निराशाओं का जिस पर पड़ा हुआ था धूसर अम्बर, उस तेरी स्मृति के आसन को अमृत-नीर से धो गये। घन अकाल में आये, आ कर रो गये।...
आज चिन्तामय हृदय है, प्राण मेरे थक गये हैं- बाट तेरी जोहते ये नैन भी तो थक गये हैं; निबल आकुल हृदय में नैराश्य एक समा गया है वेदना का क्षितिज मेरा आँसुओं से छा गया है।...
मैं तेरा कवि! ओ तट-परिमित उच्छल वीचि-विलास! प्राणों में कुछ है अबाध-तनु को बाँधे हैं पाश! मैं तेरा कवि! ओ सन्ध्या की तम-घिरती द्युति कोर! मेरे दुर्बल प्राण-तन्तु को व्यथा रही झकझोर!...
यही, हाँ, यही- कि और कोई बची नहीं रही उस मेरी मधु-मद भरी रात की निशानी : एक यह ठीकरे हुआ प्याला कहता है- जिसे चाहो तो मान लो कहानी।...
मैं कवि हूँ द्रष्टा, उन्मेष्टा, सन्धाता, अर्थवाह, मैं कृतव्यय। मैं सच लिखता हूँ : लिख-लिख कर सब झूठा करता जाता हूँ।...
जो कुछ सुन्दर था, प्रेय, काम्य, जो अच्छा, मँजा-नया था, सत्य-सार, मैं बीन-बीन कर लाया। नैवेद्य चढ़ाया।...