अन्तिम आलोक
सन्ध्या की किरण परी ने उठ अरुण पंख दो खोले, कम्पित-कर गिरि शिखरों के उर-छिपे रहस्य टटोले। देखी उस अरुण किरण ने कुल पर्वत-माला श्यामल- बस एक शृंग पर हिम का था कम्पित कंचन झलमल। प्राणों में हाय, पुरानी क्यों कसक जग उठी सहसा? वेदना-व्योम से मानो खोया-सा स्मृति-घन बरसा। तेरी उस अन्त घड़ी में तेरी आँखों में जीवन! ऐसा ही चमक उठा था तेरा अन्तिम आँसू-कण!

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