औद्योगिक बस्ती
पहाड़ियों पर घिरी हुई इस छोटी-सी घाटी में ये मुँहझौंसी चिमनियाँ बराबर धुआँ उगलती जाती हैं। भीतर जलते लाल धातु के साथ कमकरों की दु:साध्य विषमताएँ भी तप्त उबलती जाती हैं। बंधी लीक पर रेलें लादें माल चिहुँकती और रंभाती अफ़राये डाँगर-सी ठिलती चलती जाती हैं। उद्यम की कड़ी-कड़ी में बंधते जाते मुक्तिकाम मानव की आशाएँ ही पल-पल उस को छलती जाती हैं।

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