चक्रान्त शिला – 17
न कुछ में से वृत्त यह निकला कि जो फिर शून्य में जा विलय होगा किन्तु वह जिस शून्य को बाँधे हुए है- उस में एक रूपातीत ठंडी ज्योति है। तब फिर शून्य कैसे है-कहाँ है? मुझे फिर आतंक किस का है? शून्य को भजता हुआ भी मैं पराजय बरजता हूँ। चेतना मेरी बिना जाने प्रभा में निमजती है मैं स्वयं उस ज्योति से अभिषिक्त सजता हूँ।

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