नाता-रिश्ता-5
उस राख का पाथेय लेकर मैं चलता हूँ उस मौन की भाषा में मैं गाता हूँ : उस अलक्षित, अपरिमेय निमिष में मैं तुम्हारे पास जाता हूँ, पर मैं, जो होने में ही अपने को छलता हूँ-- यों अपने अनस्तित्व में तुम्हें पाता हूँ।

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