चक्रान्त शिला - 21
यही, हाँ, यही- कि और कोई बची नहीं रही उस मेरी मधु-मद भरी रात की निशानी : एक यह ठीकरे हुआ प्याला कहता है- जिसे चाहो तो मान लो कहानी। और दे भी क्या सकता हूँ हवाला उस रात का : या प्रमाण अपनी बात का? उस धूपयुक्त कम्पहीन अपने ही ज्वलन के हुताशन के ताप-शुभ्र केन्द्र-वृत्त में उस युग-साक्षात् का? यों कहीं तो था लेखा : पर मैं ने जो दिया, जो पाया, जो पिया, जो गिराया, जो ढाला, जो छलकाया, जो नितारा, जो छाना, जो उतारा, जो चढ़ाया जो जोड़ा, जो तोड़ा, जो छोड़ा- सब का जो कुछ हिसाब रहा, मैं ने देखा कि उसी यज्ञ-ज्वाला में गिर गया। और उसी क्षण मुझे लगा कि अरे, मैं तिर गया -ठीक है, मेरा सिर फिर गया। मैं अवाक् हूँ, अपलक हूँ। मेरे पास और कुछ नहीं है तुम भी यदि चाहो तो ठुकरा दो: जानता हूँ कि मैं भी तो ठीकरा हूँ। और मुझे कहने को क्या हो जब अपने तईं खरा हूँ?

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