आशी:(वसंत का एक दिन)
फूल काँचनार के, प्रतीक मेरे प्यार के! प्रार्थना-सी अर्धस्फुट काँपती रहे कली, पत्तियों का सम्पुट, निवेदिता ज्यों अंजली। आए फिर दिन मनुहार के, दुलार के -फूल काँचनार के! सुमन-वृंत बावले बबूल के! झोंके ऋतुराज के वसंती दुकूल के, बूर बिखराता जा पराग अंगराग का, दे जा स्पर्श ममता की सिहरती आग का। आवे मत्त गंध वह ढीठ हूल-हूल के -सुमन वृंत बावले बबूल के! कली री पलास की! टिमटिमाती ज्योति मेरी आस की या कि शिखा ऊध्र्वमुखी मेरी दीप्त प्यास की। वासना-सी मुखरा, वेदना-सी प्रखरा दिगंत में, प्रांतर में, प्रांत में खिल उठ, झूल जा, मस्त हो, फैल जा वनांत में- मार्ग मेरे प्रणय का प्रशस्त हो!

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