चक्रान्त शिला – 20
ढूह की ओट बैठे बूढ़े से मैं ने कहा: मुझे मोती चाहिए। उस ने इशारा किया: पानी में कूदो। मैं ने कहा : मोती मिलेगा ही, इस का भरोसा क्या? उस ने एक मूठ बालू उठा मेरी ओर कर दी। मैं ने कहा : इस में से मिलेगा मुझे मोती? उस ने एक कंकड़ उठाया और अनमने भाव से मुझे दे मारा। मैं ने बड़ा जतन दिखाते हुए उसे बीन लिया और कहा : यही क्या मोती है- आप का? धीरे-धीरे झुका माथा ऊँचा हुआ, मुड़ा वह मेरी ओर। सागर-सी उस की आँखें थीं सदियों की रेती पर इतिहास की हवाओं की लिखतों-सी नैन-कोरों की झुर्रियाँ। बोला वह : (कैसी एक खोयी हुई हवा उन बालुओं के ढूहों में से, घासों में से सर्पिल-सी फिसली चली गयी) ‘हाँ : या कि नहीं, क्यों? मिट्टी के भीतर पत्थर था पत्थर के भीतर पानी था पानी के भीतर मेंढक था मेंढक के भीतर अस्थियाँ थीं यानी मिट्टी-पत्थर था, लहू की धार थी यानी पानी था, श्वास था यानी हवा थी, जीव था यानी मेंढक था। मोती जो चाहते हो उस की पहचान अगर यह नहीं तो और क्या है?’

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