चक्रान्त शिला – 15
जो कुछ सुन्दर था, प्रेय, काम्य, जो अच्छा, मँजा-नया था, सत्य-सार, मैं बीन-बीन कर लाया। नैवेद्य चढ़ाया। पर यह क्या हुआ? सब पड़ा-पड़ा कुम्हलाया, सूख गया, मुरझाया: कुछ भी तो उस ने हाथ बढ़ा कर नहीं लिया। गोपन लज्जा में लिपटा, सहसा स्वर भीतर से आया: यह सब मन ने किया, हृदय ने कुछ नहीं दिया, थाती का नहीं, अपना हो जिया। इस लिए आत्मा ने कुछ नहीं छुआ। केवल जो अस्पृश्य, अगर्ह्य कह तज आयी मेरे अस्तित्व मात्र की सत्ता, जिस के भय से त्रस्त, ओढ़ती काली घृणा इयत्ता, उतना ही, वही हलाहल उसने लिया। और मुझ को वात्सल्य भरा आशिष दे कर!- ओक भर पिया।

Read Next