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जग-का मेरा प्यार नहीं था! तूने था जिसको लौटाया, क्या उसको मैंने फिर पाया? हृदय गया था अर्पित होने, साधारण उपहार नहीं था!...

मेरे उर पर पत्थर धर दो! जीवन की नौका का प्रिय धन लुटा हुआ मणि-मुक्ता-कंचन तो न मिलेगा, किसी वस्तु से इन खाली जगहों को भर दो!...

कोई गाता, मैं सो जाता! संसृति के विस्तृत सागर पर सपनों की नौका के अंदर सुख-दुख की लहरों पर उठ-गिर बहता जाता मैं सो जाता!...

मेरा जोर नहीं चलता है! स्वप्नों की देखी निष्ठुरता, स्वप्नों की देखी भंगुरता, फिर भी बार-बार आ करके स्वप्न मुझे निशिदिन छलता है!...

साथी, सब कुछ सहना होगा! मानव पर जगती का शासन, जगती पर संसृति का बंधन, संसृति को भी और किसी के प्रतिबंधो में रहना होगा!...

साथी, घर-घर आज दिवाली! फैल गयी दीपों की माला मंदिर-मंदिर में उजियाला, किंतु हमारे घर का, देखो, दर काला, दीवारें काली!...

नयन बनें नवीन ज्योति के निलय, नवल प्रकाश पुंज से जगे हृदय, नवीन तेज बुद्धि को करे अभय, सुदीर्घ देश की निशा समाप्त हो।...

यह मिट्टी की चतुराई है, रूप अलग औ’ रंग अलग, भाव, विचार, तरंग अलग हैं, ढाल अलग है ढंग अलग,...

मुझे न सपनों से बहलाओ! धोखा आदि-अंत है जिनका, क्या विश्वास करूँ मैं इनका; सत्य हुआ मुखरित जीवन में, मत सपनों का गीत सुनाओ!...

आज घिरे हैं बादल, साथी! भरा हृदय नभ विगलित होकर आज बिखर जाएगा भूपर, चार नयन भी साथ गगन के आज पड़ेंगे ढल-ढल, साथी!...

सुनकर होगा अचरज भारी! दूब नहीं जमती पत्थर पर, देख चुकी इसको दुनिया भर, कठिन सत्य पर लगा रहा हूँ सपनों की फुलवारी!...

लक्ष्य क्या तेरा यही था? धरणि तल से धूल उठकर बन भवन-प्रासाद सुखकर, देव मंदिर सुरुचि-सज्जित,...

व्याकुल आज तन-मन-प्राण! तन बदन का स्पर्श भूला, पुलक भूला, हर्ष भूला, आज अधरों से अपरिचित हो गई मुस्कान!...

आओ, नूतन वर्ष मना लें! गृह-विहीन बन वन-प्रयास का तप्त आँसुओं, तप्त श्वास का, एक और युग बीत रहा है, आओ इस पर हर्ष मना लें!...

रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने। फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में और चारों ओर दुनिया सो रही थी, तारिकाएँ ही गगन की जानती हैं...

मैंने खेल किया जीवन से! सत्‍य भवन में मेरे आया, पर मैं उसको देख न पाया, दूर न कर पाया मैं, साथी, सपनों का उन्‍माद नयन से!...

मैंने गाकर दुख अपनाए! कभी न मेरे मन को भाया, जब दुख मेरे ऊपर आया, मेरा दुख अपने ऊपर ले कोई मुझे बचाए!...

कौन मिलनातुर नहीं है? आक्षितिज फैली हुई मिट्टी निरंतर पूछती है, कब कटेगा, बोल, तेरी चेतना का शाप, और तू हो लीन मुझमें फिर बनेगा शांत?...

यह पपीहे की रटन है! बादलों की घिर घटाएँ, भूमि की लेतीं बलाएँ, खोल दिल देतीं दुआएँ- देख किस उर में जलन है!...

यदि जीवन पुनः बना पाता। मैं करता चकनाचूर न जग का दुख-संकटमय यंत्र पकड़, बस कुछ कण के परिवर्तन से क्षण में क्या से क्या हो जाता।...

कौन सरसी को अकेली और सहमी छोड़ तुम आये यहाँ हो, कुछ बताओ। इस तरफ से रोज़ आना, रोज़ जाना आज सालों से लगा मेरा बराबर,...

था तुम्हें मैंने रुलाया! हाय, मृदु इच्छा तुम्हारी! हा, उपेक्षा कटु हमारी! था बहुत माँगा न तुमने किन्तु वह भी दे ना पाया!...

नीड़ का निर्माण फिर-फिर, नेह का आह्णान फिर-फिर! वह उठी आँधी कि नभ में छा गया सहसा अँधेरा,...

अकेला मानव आज खड़ा है! दूर हटा स्वर्गों की माया, स्वर्गाधिप के कर की छाया, सूने नभ, कठोर पृथ्वी का ले आधार अड़ा है!...

तट पर है तरुवर एकाकी, नौका है, सागर में, अंतरिक्ष में खग एकाकी, तारा है, अंबर में,...

छल गया जीवन मुझे भी। देखने में था अमृत वह, हाथ में आ मधु गया रह और जिह्वा पर हलाहल!...

सुवर्ण मृत्तिका हुई कलम छुई, अमृत हर एक बिंदु लेखनी चुई, कलम जहाँ गई वहाँ विजय हुई, विफल रही नहीं कभी न भारती।...

मैंने दुर्दिन में गाया है! दुर्दिन जिसके आगे रोता, बंदी सा नतमस्तक होता, एक न एक समय दुनिया का एक-एक प्राणी आया है!...

कटी न थी गुलाम लौह श्रृंखला, स्वतंत्र हो कदम न चार था चला, कि एक आ खड़ी हुई नई बला, परंतु वीर हार मानते कभी?...

साथी सो न कर कुछ बात। पूर्ण कर दे वह कहानी, जो शुरू की थी सुनानी, आदि जिसका हर निशा में,...

मैंने भी जीवन देखा है! अखिल विश्व था आलिंगन में, था समस्त जीवन चुम्बन में युग कर पाए माप न जिसकी मैंने ऐसा क्षण देखा है!...

अब क्या होगा मेरा सुधार! तू ही करता मुझसे बिगाड़, तो मैं न मानता कभी हार, मैं काट चुका अपने ही पग अपने ही हाथों ले कुठार!...

गुलाब तू बदरंग हो गया है बदरूप हो गया है झुक गया है...

सर्वथा ही यह उचित है औ’ हमारी काल-सिद्ध, प्रसिद्ध चिर-वीरप्रसविनी, ...

करुण अति मानव का रोदन। ताज, चीन-दीवार दीर्घ जिन हाथों के उपहार, वही सँभाल नहीं पाते हैं अपने सिर का भार! गड़े जाते भू में लोचन!...

अगर विभेद ऊँच-नीच का रहा, अछूत-छूत भेद जाति ने सहा, किया मनुष्य औ’ मनुष्य में फ़रक़, स्वदेश की कटी नहीं कुहेलिका।...

मेरे अंतर की ज्वाला तुम घर-घर दीप शिखा बन जाओ। दिनकर का उर दाह धरा पर सतरंगी किरणें बिखराता, जलधर खारा आँसू पीकर...

भीगी रात विदा अब होती। रोते-रोते रक्त नयन हो, पीत बदन हो, छाया तन हो, पार क्षितिज के रजनी जाती, अपना अंचल छोर निचोती।...

मेरी तो हर साँस मुखर है, प्रिय, तेरे सब मौन सँदेशे। एक लहर उठ-उठकर फिर-फिर ललक-ललक तट तक जाती है, उदासीन जो सदा-सदा से...

मेरे यौवन के साथी, तुम एक बार जो फिर मिल पाते, वन-मरु-पर्वत कठिन काल के कितने ही क्षण में कह जाते।...