मेरे अंतर की ज्वाला तुम घर-घर दीप शिखा बन जाओ
मेरे अंतर की ज्वाला तुम घर-घर दीप शिखा बन जाओ। दिनकर का उर दाह धरा पर सतरंगी किरणें बिखराता, जलधर खारा आँसू पीकर अमृत पृथ्वी पर बरसाता, घाव धरणि सहती छाती पर और उमहती है फूलों में, अपनी जाति-वंश मर्यादा, हे मन, दुख में भूल न जाओ। मेरे अंतर की ज्वाला तुम घर-घर दीप शिखा बन जाओ। पूण्य इकट्ठा होता है तब आग कलेजे में आती है, इसका मर्म समझते वे ही जिनका तन यह सुलगाती है, भीतर ही रखते जो इसको बनते राख-धुँए की ढेरी, बाहर यह गाती, मुस्काती, ताप बटोरो, ज्योति लुटाओ। मेरे अंतर की ज्वाला तुम घर-घर दीप शिखा बन जाओ।

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