मेरी तो हर साँस मुखर है, प्रिय, तेरे सब मौन सँदेशे
मेरी तो हर साँस मुखर है, प्रिय, तेरे सब मौन सँदेशे। एक लहर उठ-उठकर फिर-फिर ललक-ललक तट तक जाती है, उदासीन जो सदा-सदा से भाव मरी तट की छाती है, भाव-भरी यह चाहे तट भी कभी बढ़े, तो अनुचित क्या है? मेरी तो हर साँस मुखर है, प्रिय, तेरे सब मौन सँदेशे। बंद कपाटों पर जाकर जो बार-बार साँकल खटकाए, और न उत्तर पाए, उसकी ग्लानि-लाज को कौन बताए, पर अपमान पिए पग फिर भी इस डयोढ़ी पर जाकर ठहरें, क्या तुझमें ऐसा जो तुझसे मेरे तन-मान-प्राण बँधे-से। मेरी तो हर साँस मुखर है, प्रिय, तेरे सब मौन सँदेशे।

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